कोई झांक रहा है आपकी हैसियत पर!
कारें जब से ईजाद की गईं, तब से ही स्टेटस सिंबल हैं. किसके पास कौन सा ब्रैंड है, किसके पास कौन सी कार है, किस देश में बनी कार है, कितनी कारें हैं, इनसे समाज में उसका दर्जा तय होता है.
लोग पड़ोसियों और रिश्तेदारों को जलाने के लिए भी महंगी कारों की नुमाइश करते फिरते हैं. स्टेटस सिंबल बताने वाली कारें, अब किसी भी इलाक़े की आमदनी, सामाजिक स्थिति और ग़रीब-अमीर के बीच फासले की भी ख़बर देंगी.
मसलन, किसी भी इलाक़े में ज़्यादा विदेशी कारें हैं, तो ज़ाहिर है कि वहां के लोगों की आमदनी ज़्यादा है, तभी वो इतनी महंगी कारें ख़रीद पा रहे हैं.
हैरानी की बात ये नहीं है. हैरानी की बात ये है कि ये आंकड़े किसी सर्वे करने वाली कंपनी के ज़रिए नहीं निकाले जा रहे हैं. बल्कि गूगल कंपनी के स्ट्रीटव्यू से ये आंकड़े जमा किए जा रहे हैं.

इस इंक़लाबी तरीक़े से जमा जानकारी से आने वाले वक़्त में और भी दिलचस्प आंकड़े निकाले जा सकते हैं.
हाल ही में अमरीका की मशहूर स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने गूगल स्ट्रीटव्यू से ली गई तस्वीरों पर एक ज़बर्दस्त रिसर्च की.
लाखों तस्वीरों को छांटकर कुछ ख़ास इलाक़ों के लोगों के रहन-सहन, उनकी आमदनी और सामाजिक दर्जे के बारे में अनुमान लगाए गए. साथ ही किसी शहर में ग़रीबों और अमीरों के बीच फ़ासले का अंदाज़ा भी लगाया गया.
बाद में इन आंकड़ों को असली सर्वे से निकाले गए आंकड़ों से मिलाया गया. जो असली सर्वे हुए थे इन्हें अमेरिकन कम्युनिटी सर्वे के नाम से 25 करोड़ डॉलर ख़र्च करके कराया गया था. इसमें काफ़ी वक़्त और मेहनत लगी थी.
पता ये चला कि गूगल स्ट्रीटव्यू से निकले और अमेरिकन कम्युनिटी सर्वे से मिले आंकड़े कमोबेश एक जैसे थे.

यानी गूगल स्ट्रीटव्यू आपके इलाक़े की जो तस्वीरें ले रहा है, वो असल में आपकी आमदनी और रहन-सहन समेत कई राज़ों की चुगली करती हैं. ये जानकारियां जनसंख्या से जुड़े रिसर्च करने वालों के काफ़ी काम आ सकती हैं.
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्च से पता चला कि जिस इलाक़े की गूगल स्ट्रीटव्यू तस्वीरों में जापानी और जर्मन कारें ज़्यादा दिखीं, वो दूसरे इलाक़ों के मुक़ाबले ज़्यादा अमीर लोगों वाला था. वहीं, जिन तस्वीरों में अमरीकी कारें ज़्यादा दिख रही हैं, वो अमरीका के निम्न मध्यम वर्ग वाले हैं.
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने ये आंकड़े गूगल स्ट्रीटव्यू की तस्वीरों को कंप्यूटर की मदद से छांटकर निकाले. आंकड़े निकालने का ये एकदम नया तरीक़ा है. ये सस्ता भी है. आसान भी और इसमें वक़्त भी कम लगा.
अगर ये आंकड़े और भरोसेमंद साबित होते हैं, तो आने वाले वक़्त में सोशल रिसर्च करने वालों को गूगल स्ट्रीटव्यू से काफ़ी मदद मिलेगी.
जैसे अमरीका के शिकागो शहर में अमीर लोगों और ग़रीब लोगों के इलाक़ों में काफ़ी दूरी दिखी. वहीं, फ्लोरिडा के जैक्सनविल में अमीर और ग़रीब के बीच की दूरी कम है, ये बात पता चली. ये दोनों ही बातें हक़ीक़त हैं.

आम तौर पर किसी देश की जनसंख्या, उसकी ज़ात-पांत, धर्म, आमदनी और दूसरी जानकारियां जमा करना बहुत मुश्किल काम होता है. वक़्त भी लगता है. बहुत बड़ी संख्या में लोगों की ज़रूरत भी होती है, जो घर-घर जाकर लोगों से बात करके ये जानकारियां जुटा सकें.
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्च की अगुवाई करने वाली टिमनिट गेब्रू कहती हैं कि उनका रिसर्च छपने के बाद बहुत से सियासी दलों और सामाजिक विज्ञानियों ने उनसे संपर्क किया है.
गेब्रू कहती हैं कि गूगल स्ट्रीटव्यू से हमें कई और दिलचस्प जानकारियां मिल सकती हैं. हालांकि वो ये आगाह करती हैं कि हर देश में हम कारों की तस्वीरों से आंकड़े नहीं जुटा सकते.
गेब्रू कहती हैं कि कुछ देशों में लोग पहनावे पर ज़्यादा ध्यान देते हैं. कपड़ों पर ज़्यादा पैसे ख़र्च करते हैं.
गेब्रू कहती हैं कि उनके रिसर्च का सबसे बुनियादी फ़ायदा ये है कि तस्वीरों की मदद से कई आंकड़े जुटाए जा सकते हैं. अगर अक़्लमंद मशीनें यानी कंप्यूटर इन तस्वीरों से कुछ और जानकारियां निचोड़ना सीख जाते हैं, तो तमाम सर्वे से नतीजों पर पहुंचने के मुक़ाबले, तस्वीरों से आंकड़े जुटाना आसान होगा.

कुछ देश इन तस्वीरों से दूसरे तरह के अंदाज़े लगा रहे हैं. जैसे, कनाडा. जहां पर किसी ख़ास इलाक़े की गूगल स्ट्रीटव्यू तस्वीरों से वहां के पर्यावरण और लोगों की सेहत के बीच रिश्ते का पता लगाया जा रहा है.
यानी, तस्वीरों से ये पता लगाया जा रहा है कि कहीं हरियाली कम है, तो क्या वहां के लोग कुछ बीमारियों के ज़्यादा शिकार होते हैं.
लेकिन, सावधान रहिए गूगल जैसी कंपनियां आपने इलाक़े और आपकी तस्वीरें लेकर आपके राज़ दुनिया के सामने उजागर कर रहे हैं.
आपने जो नई कार ख़रीदी है, उससे आपकी आमदनी पता चल सकती है. जो नए कपड़े ख़रीदे हैं, उनसे भी आपके रहन-सहन का अंदाज़ा हो सकता है.
तो, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर तस्वीरें डालने से पहले, एक बार सोच ज़रूर लीजिएगा.
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